Tuesday, November 27, 2018

कभी आतंकी थे लांस नायक वानी, देश के लिए लड़ते हुए कश्मीर में शहीद हुए

जम्मू-कश्मीर के शोपियां में रविवार को मुठभेड़ में शहीद हुए लांस नायक नजीर अहमद वानी (38) कभी खुद आतंकी थे। हालांकि बाद में उन्होंने समर्पण कर दिया था। आर्मी ने वानी को सच्चा सैनिक बताया है। उन्हें 2007 और इसी साल अगस्त में वीरता के लिए सेना मेडल से सम्मानित किया गया था। 

मुठभेड़ में 6 आतंकी मारे गए थे। वानी के गांव के आसपास काफी आतंकी गतिविधियां होती हैं। सेना के प्रवक्ता कर्नल राजेश कालिया के मुताबिक, "वानी को बाटागुंड में मुठभेड़ के दौरान गोलियां लगी थीं। उन्हें तुरंत अस्पताल लाया गया लेकिन इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई। दुख की इस घड़ी में आर्मी वानी के परिवार के साथ है।'' सोमवार को अंतिम संस्कार के दौरान उनके पार्थिव शरीर को तिरंगे में लपेटा गया और 21 बंदूकों की सलामी दी गई। उनके परिवार में पत्नी, बेटा और बेटी हैं।

21 बंदूकों की दी गई सलामी
कुलगाम के चेकी अश्मुजी गांव के रहने वाले वानी शुरू में आतंकी थे लेकिन बाद में हिंसा से किनारा कर लिया। 2004 में उन्होंने आर्मी ज्वाइन की। टेरिटोरियल आर्मी की 162वीं बटालियन से उन्होंने करियर की शुरुआत की।

हिजबुल और लश्कर से जुड़े थे आतंकी
25 नवंबर को शोपियां के हिपुरा बाटागुंड इलाके में 6 आतंकी मारे गए थे, जिसमें से चार हिजबुल मुजाहिदीन और दो लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े थे। उनकी पहचान उमर मजीद गनी, मुश्ताक अहमद मीर, मोहम्मद अब्बास भट, मोहम्मद वसीम वगई, खालिद फारूक मली के रूप में हुई। उमर गनी बाटमालू एनकाउंटर के दौरान बच निकला था। पिछले दिनों उसकी तस्वीर वायरल हुई थी, जिसमें उमर लाल चौक के आसपास नजर आया था। बीते दो साल में वह कई जवानों और आम नागरिकों की हत्या में शामिल रहा था।

सुरक्षाबलों के काफिले पर हुआ पथराव
सुरक्षाबलों की कार्रवाई के मद्देनजर शोपियां में मोबाइल इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई थी। इसके बाद भी प्रदर्शनकारियों ने मुठभेड़ के बाद लौट रहे जवानों के काफिले पर पथराव किया। जवाबी कार्रवाई में कुछ पथरबाज जख्मी हुए।

माचलपुर में पुरानी कृषि मंडी के सामने रविवार सुबह साढ़े 10 कांग्रेस की सभा आयोजित की गई। जिसमें प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह ने सचिन पायलट की तरफ इशारा करते हुए कहा कि यह राहुल गांधी के बहुत करीबी है और देश का भविष्य है। हम तो डूबता सूरज है। श्री सिंह ने कहा कि मै हमेशा कहता हूं कि मौसम आता है तो पत्ते झड़ जाते है और नई कोपल आती है। हमारी उम्र अब जाने की है। हम तो डूबते सूरज हैं, यह उगते सूरज हैं।

श्री सिंह ने जनसभा को संबोधित करते हुए प्रदेश में बदलाव का समय है, जनता अब बदलाव चाहती है। मामा की भ्रष्ट सरकार को अब कोई नहीं बचा सकता। इसलिए कांग्रेस के पक्ष में वोट करें। इस दौरान श्री सिंह ने सचिन पायलट पायलट को राहुल गांधी का करीबी बताते हुए देश का भविष्य बताया है। श्री सिंह ने इशारों में कहा कि अब हमारी उम्र हो चुकी, लेकिन यह उगते सूरज हैं। इस दौरान श्री पायलट ने कहा कि राजा साहब आप कांग्रेस में हमेशा चमकता हुआ सूरज रहेंगे। इस मौके पर हजारों लोग उपस्थित थे।

Wednesday, November 7, 2018

वो एक चूक, जिसकी कसक से आडवाणी उबर नहीं पाए

बीजेपी के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी आज यानी आठ नवंबर को 91 साल के हो गए. बीजेपी को शून्य से शिखर तक पहुंचाने में आडवाणी की अहम भूमिका रही है लेकिन आज की तारीख़ में आडवाणी बीजेपी में हाशिए पर हैं और सक्रिय राजनीति से बिल्कुल अलहदा हो गए हैं.

प्रधानमंत्री मोदी कभी आडवाणी के काफ़ी क़रीबी हुआ करते थे, लेकिन 2014 में प्रधानमंत्री उम्मीदवार के चयन के बाद से दोनों के रिश्तों में कड़वाहट आई है.

गुरुवार को मोदी ने भी आडवाणी को जन्मदिन की बधाई दी और लंबी उम्र की कामना की. आडवाणी का रजनीतिक जीवन संघर्षों से भरा रहा है, लेकिन वो प्रधानमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच पाए. आख़िर उनकी राजनीति कहां चूक गई?

एक ज़माने में भारतीय जनता पार्टी के वयोवृद्ध नेता लाल कृष्ण आडवाणी की पूरे भारत में तूती बोला करती थी और उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रबल दावेदार माना जाता था.

लेकिन पिछले दिनों जब राष्ट्रपति पद का चुनाव हुआ तो उनका नाम इस पद के संभावितों की सूची में भी नहीं रखा गया.

ये वही आडवाणी हैं जिन्होंने 1984 में दो सीटों पर सिमट गई भारतीय जनता पार्टी को रसातल से निकाल कर पहले भारतीय राजनीति के केंद्र में पहुंचाया और फिर 1998 में पहली बार सत्ता का स्वाद चखाया.

उस समय जो बीज उन्होंने बोए थे, कायदे से उसकी फसल काटने का समय अब था. लेकिन फसल काटना तो दूर लाल कृष्ण आडवाणी भारतीय राजनीति तो क्या भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में आप्रासंगिक से हो गए हैं.

2004 और 2009 की लगातार दो चुनाव की हार के बाद 'लॉ ऑफ़ डिमिनिशिंग रिटर्न्स' का सिद्धांत आडवाणी पर भी लागू हुआ और एक ज़माने में उनकी छत्रछाया में पलने वाले नरेंद्र मोदी ने उनकी जगह ले ली.

भारतीय जनता पार्टी को नज़दीक से देखने वाले और इंदिरा गाँधी सेंटर ऑफ़ आर्ट्स के प्रमुख राम बहादुर राय कहते हैं, "2004 के चुनाव में हार के बाद भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों में विचार हुआ कि नई लीडरशिप आनी चाहिए. इस सोच को इसलिए भी बल मिला क्योंकि ख़बरें आ रही थीं कि राहुल गाँधी कांग्रेस का नेतृत्व संभालने जा रहे हैं."

नए नेतृत्व में जगह नहीं मिली
वो कहते हैं, "ऐसा लगने लगा था कि नई लीडरशिप में आडवाणी के लिए शायद कोई जगह नहीं होगी. लेकिन भारतीय जनता पार्टी के संगठन पर आडवाणी का जो प्रभाव था उसके चलते उन्होंने नेतृत्व के बारे में इस सोच को आगे नहीं बढ़ने दिया. बल्कि जब ये बात चली तो उन्होंने तत्कालीन अध्यक्ष वेंकैया नायडू को अपने पद से इस्तीफ़ा देने के लिए आदेश दिया और वो ख़ुद पार्टी के अध्यक्ष बन गए."

"इसको बीजेपी के अंदर और उसके सहयोगी संगठनों ने भी बहुत सकारात्मक ढंग से नहीं लिया."

उधर आडवाणी के समर्थकों का कहना है कि उन्होंने ही वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे किया जबकि उस समय उनका राजनीतिक क्लाउट ऐसा था कि अगर वो चाहते तो ख़ुद इस पद के दावेदार हो सकते थे.

वरिष्ठ पत्रकार अजय सिंह का मानना है, "अगर आप 1994-95 के आडवाणी को देखें तो वो भी प्रधानमंत्री के रूप में बीजेपी के स्वाभाविक उम्मीदवार थे लेकिन वस्तुस्थिति का जितना अंदाज़ा आडवाणी को था, उतना बाकी लोगों को नहीं था."

अजय सिंह के अनुसार, "वो जानते थे कि भारत जैसे देश में उन दिनों के हालात में एक ऐसे शख्स की ज़रूरत है जिसके बारे में सबका मत एक हो. इसको नज़र में रखते हुए ही उन्होंने वाजपेयी का नाम आगे किया."

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