Wednesday, May 29, 2019

ममता के दो विधायक और दर्जनों काउंसलर बीजेपी में शामिल

तृणमूल कांग्रेस के दो और सीपीआई (एम) के एक विधायक के अलावा 60 पार्षद मंगलवार को बीजेपी में शामिल हो गए. ये सभी पार्षद पश्चिम बंगाल की सिविक बॉडी के हैं.

लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को तगड़ा झटका देने के बाद एक और झटका दिया है. इस बार बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में 18 सीटों पर जीत दर्ज की है जबकि 2014 में महज़ दो सीटों पर ही जीत मिली थी.

बीजापुर के विधायक सुभ्रांशु रॉय, नवापारा के विधायक सुनील सिंह और बैरकपुर के विधायक शीलभद्रा दत्ता सोमवार को दिल्ली पहुंचे थे.

इसी तरह हलीसाहर, कांचरपारा और नईहाटी नगरपालिका के टीएमसी के 30 पार्षद भी दिल्ली पहुंचे थे. ये सभी विधानसभा क्षेत्र उत्तरी 24 परगना ज़िले के हैं.

सुभ्रांशु रॉय पश्चिम बंगाल में बीजेपी के चुनावी अभियान के संयोजक मुकुल रॉय के बेटे हैं. सुनील सिंह भी बैरकपुर से बीजेपी सांसद अर्जुन सिंह के रिश्तेदार हैं. शीलभद्रा दत्ता को भी मुकुल रॉय का क़रीबी बताया जाता है.

बीजेपी में विधायकों और पार्षदों को शामिल कराए जाने के बाद पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने कहा, ''जैसे पश्चिम बंगाल में सात चरणों में मतदान हुआ है वैसे ही और विधायक बाक़ी के चरणों में बीजेपी में शामिल होंगे. यह पहला चरण था.''

सुभ्रांशु रॉय को तृणमूल कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद 24 मई को पार्टी से बाहर निकाल दिया था. उन्हें पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के मामले में टीएमसी से निकाला गया था. वो अपने पिता की तारीफ़ कर रहे थे और ममता की बुराई.

इस लोकसभा चुनाव में बीजेपी की न केवल सीटें बढ़ी हैं बल्कि वोट प्रतिशत भी 40.25 फ़ीसदी हो गया. तृणमूल कांग्रेस ने 2014 में 34 लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी जो इस चुनाव में घटकर 22 हो गईं.

पार्षदों में हलीसाहर नगरपालिका के चेयरमैन और कांचरपारा नगरपालिका के उपाध्यक्ष भी शामिल हैं. इन पार्षदों ने कहा कि उन्होंने सुभ्रांशु रॉय की तरह बीजेपी में जाने का फ़ैसला किया है.

छोटे-बड़े हर व्यवसाय में कुछ लीडर होते हैं जो उत्पादकता बढ़ाते हैं और कंपनी के नतीजे बेहतर करते हैं.

उनसे अलग कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने घटिया प्रदर्शन से कंपनी को पीछे खींचते हैं.

कंपनी की कामयाबी और नाकामी कर्मचारियों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है. जैसा कि जनरल इलेक्ट्रिक के पूर्व चेयरमैन जैक वेल्च ने एक बार कहा था, "सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों वाली टीम जीतती है."

सीईओ और मैनेजर कामयाब कंपनियां बनाना चाहते हैं, लेकिन उनके सामने एक मुश्किल चुनौती रहती है- बुरे कर्मचारियों में से अच्छे कर्मचारियों को कैसे छांटा जाए.

किसी खिलाड़ी का प्रदर्शन उसके आंकड़ों में झलकता है, लेकिन किसी सेल्स पर्सन ने कैसा काम किया, यह बता पाना कहीं ज़्यादा मुश्किल है.

कंपनियां हर साल लाखों डॉलर और सैकड़ों घंटे ख़र्च करके अपने कर्मचारियों के प्रदर्शन की समीक्षा करती हैं. इसके लिए चेकलिस्ट बनाए जाते हैं.

कारोबार जगत के विद्वानों ने भी इस मुद्दे पर गहनता से अध्ययन किया है. नतीजा क्या रहा है?

वर्जीनिया की मैनेजमेंट सलाहकार कंपनी PDRI की सीईओ और मैनेजमेंट एक्सपर्ट एलैन पुलकोस का कहना है कि उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर कर्मचारियों का मूल्यांकन करने से न तो उनके प्रदर्शन में कोई सुधार होता है, न ही कंपनी को किसी तरह का प्रतिस्पर्धी लाभ मिलता है.

वह कहती हैं, "यह बेहद ही ख़र्चीली क़वायद है और उत्पादकता पर इसका कोई असर नहीं पड़ता."

कई प्रयासों के बावजूद आज तक वह रेटिंग सिस्टम नहीं बन पया जो यह बता सके कि अमुक कंपनी में बेहतरीन काम करने वाले लोग हैं और अमुक कंपनी में औसत दर्जे के कर्मचारी हैं.

पुलकोस 2012 की एक रिपोर्ट का हवाला देती हैं जिसमें 40 कंपनियों के 23 हजार कर्मचारियों की रेटिंग देखी गई थी और नतीजा निकला था कि रेटिंग का मुनाफ़े या नुक़सान पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.

वह कहती हैं, "परफॉर्मेंस रेटिंग का कंपनी के प्रदर्शन से कोई लेना-देना नहीं है."

पुलकोस का कहना है कि कर्मचारियों को ग्रेड देने के जितने भी तरीक़े हैं, उनमें से सालाना या छमाही प्रदर्शन समीक्षा संभवतः सबसे नुक़सानदेह है और इससे कोई मदद नहीं मिलती.

"वे असल में विषाक्त हैं और लोग उनसे नफ़रत करते हैं."

ब्रेन इमेजिंग रिसर्च का हवाला देते हुए पुलकोस कहती हैं कि सबसे तेज़तर्रार कर्मचारी भी अप्रेज़ल के समय रक्षात्मक मोड में चले जाते हैं.

जॉर्ज वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में मैनेजमेंट के प्रोफ़ेसर और जाने-माने विद्वान हर्मन एग्युनिस का कहना है कि सालाना प्रदर्शन समीक्षा कंपनी की संस्कृति के लिए बेहद नुक़सानदेह हो सकती है.

"यह आत्मा को कुचलने वाली क़वायद है. कर्मचारियों को पता नहीं होता कि उन्हें क्या करना है और मैनेजर इसे कोई भाव नहीं देते. वे सिर्फ़ इसलिए इसे करते हैं क्योंकि एचआर ने उनको ऐसा करने को कहा था."

Monday, May 13, 2019

معجون الأسنان المصنوع من مسحوق الفحم "يزيد من خطر تآكلها"

معجون الأسنان المعتمد على الفحم النباتي، الذي يُزعم أنه يبيض الأسنان، هو "خدعة تسويقية" ويمكن أن يزيد من خطر تسوسها، بحسب دراسة نشرت في الدورية البريطانية لطب الأسنان "بريتيش دينتال جورنال".

وفي الغالب لا تحتوي هذه النوعية من معجون الأسنان على أي فلورايد للمساعدة في حماية الأسنان.

ويقول معدو الدراسة إنه لا توجد أدلة علمية، تدعم المزاعم التي تقدمها الشركات المنتجة لهذا النوع من معجون الأسنان. وأضافوا أن الإفراط في استخدامها قد يضر أكثر مما ينفع.

وتنصح الدراسة باستشارة طبيب الأسنان عن الحاجة إلى تبييضها.

وأكدت أنه من الأفضل الالتزام باستخدام معجون أسنان عادي يحتوي على الفلورايد.

وكان اليونانيون القدماء أول من استخدم الفحم النباتي لأغراض تنظيف الفم ولإزالة البقع من الأسنان، والتخلص من الروائح الكريهة في الفم.

تأثير المشاهير
ويقول الدكتور جوزيف غرينول-كوهين، من كلية طب الأسنان بجامعة مانشستر وأحد المشاركين في إعداد الدراسة: "هناك المزيد والمزيد من المتاجر، التي تبيع معجون أسنان ومساحيق تعتمد على الفحم"، بعد أن بدأ مشاهير يتحدثون عن استخدامهم لها.

وأضاف أن الادعاءات التي قدموها ثبت أنها غير صحيحة، من خلال مراجعة أجريت في الولايات المتحدة لـ50 منتجا عام 2017.

ويقول البعض إن تلك هذه النوعية من معجون الأسنان قد تستخدم كـ"مضاد للبكتيريا" أو "مضاد للفطريات"، وأنها تساعد في "تبييض الأسنان وتقلل من تسوسها".

وقالت المراجعة إن البعض ينظف أسنانه بانتظام، بالمنتجات القائمة على الفحم، على أمل أن توفر له "خيارا منخفض التكلفة وسريع، لعلاج وتبييض الأسنان".

وأضافت أن استخدام هذه النوعية من معجون الأسنان بإفراط يمكن أن يؤدي إلى تآكلها، وإصابتها بالحساسية. كما أن فرص حماية الأسنان من التسوس تظل محدودة لأن تلك المنتجات تحتوي على القليل من الفلورايد.

"لا تصدق الضجة الهائلة"
وقال الدكتور غرينول-كوهين "عندما يستخدم معجون من هذا النوع كثيرا من جانب الأشخاص لديهم أسنان محشوة، يمكن أن تدخل فيها وتصبح صعبة الخروج".

"كما أن جزئيات الفحم يمكن أن تعلق في اللثة، وتحدث التهابا".

وحذر غرينول-كوهين من ثمة مخاطر أيضا على مينا الأسنان واللثة.

وتقول المراجعة إن الفحم الموجود في معاجين الأسنان حاليا عادة ما يكون معالجا في شكل مسحوق ناعم.

والفحم النباتي قد يكون مصنوعا من مواد، من بينها قشور جوز الهند والخيزران، وربما الخشب والفحم الحجري.

ويقول البروفيسور دميان ولمسلي، من الجمعية البريطانية لطب الأسنان: "معاجين الأسنان القائمة على الفحم لا تقدم حلا سحريا، لأي شخص يسعى إلى ابتسامة مثالية، بل ترتبط بمخاطر حقيقية".

ويضف: "لذلك لا تصدقوا الضجة الهائلة. أي شخص يشعر بالقلق من تغير لون أسنانه، ولا يمكنه تغيير ذلك عن طريق تغيير نظامه الغذائي أو تحسين نظافة الفم، يجب أن يستشير طبيب الأسنان".

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